जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्रके अन्दर राजगृह नामकी एक सुन्दर नगरी है। वहां मेघनाद नामका महा मण्डलेश्वर राजा राज्य करता था। वह रूप लावण्य से अत्यन्त सुन्दर था वह रूपवान के साथ साथ बलवान एवं योद्धा भी था । उसकी पट्टरानी का नाम पृथ्वीदेवी था। वह अति रूपवान व जैनधर्म रत थी। उसे जैन धर्म पर पक्का श्रद्धान था। राजा मेघनाद के राज्य में सारी प्रजा प्रसन्न थी । राजा बडे विनोद के साथ राज्य कर रहा था।

  एक दिन पट्टरानी पृथ्वीदेवी अपनी अन्य सहेलियों के साथ अपने महलकी सातवीं मंजिल से दिशावलोकन कर रही थी आनंद से बैठी बैठी विनोद की बातें कर रही थी तब उसने देखा कि बहुतसे विद्यार्थी विद्या पढ़कर अपने घर आ रहे थे जो खेलने कुदने में इतने मग्न थे कि उनका सारा बदन धूल से सना हुआ था।आठों अंग खेलने में क्रियारत थे।

  रानी ने उत्त बालको की सारी क्रिया देखी तो उसका चित्त विचारमग्न हो गया। रानी को कोई पुत्र नहीं था।बालकों का अभिनय देखकर उसे अपने पुत्र न होने का दुःख प्राप्त हुआ। दिलमें विचार किया कि जिस स्त्री के कुख से पुत्र जन्म नहीं होता उसका जीना इस संसार में वृथा है। इन्हीं विचारधाराओं के साथ वह नीचे आई तथा चिंता का शरीर बनाकर शयनकक्ष में जाकर सो गई । कुछ समय पश्चात् राजा उधर आया तो उसने रानी को इस तरह देखकर विस्मितता प्रगट की।

  रानी से पूछा- प्रिये ! आज आप इतनी चितित क्यों हो ?रानी चुप रही।पुनः राजाने प्रश्न किया, अनेक बार राजा के प्रश्न करने पर उसने जवाब दिया, हे राजन् ! अपने कोई सन्तान नहीं हैं और यह समस्त राज वैभव सन्तान के अभाव में व्यर्थ है|

  राजा ने उसे धैर्य बंधाते हुए जवाब दिया-इसमें किसके हाथ की बात है जो होनहार होता है वह होता है। हमारे अशुभ कर्मो का उदय है इसमें चिंता करने से क्या हो ! यदि भाग्य में होगा तो अवश्य - किन्तु !

             होनहार होगा वही, विधिने दिया रचाय ।

             विमल' पुण्य प्रभावसे, सुख सम्पति बहु पाय ॥

  कुछ समय बीता, नगर के बाहर उद्यानमें सिद्धवरकूट चैत्यालय की वन्दना हेतु पूर्व विदेह क्षेत्र से सुप्रभ नामके चारण ऋद्धिधारी मुनीश्वर आकाश मार्ग से पधारे। वनमाली यह सब देख अत्यंत प्रफुल्लित हुआ और वह गया फूलवारी के पास और अनेक प्रकार के फलफूल आदि से डाली सजाकर प्रसन्न चित्त से राजाके पास जाकर निवेदन किया -

  हे राजन् ! श्रीमान के उद्यान में सुप्रभ चारण ऋद्धिधारी मुनिराज पधारे हैं।

  राजा सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुआ । उसी समय सिंहासन से उतरकर १० कदम आगे बढ़ मुनिराज को साष्टांग परोक्ष प्रणाम किया । तथा प्रसत्रचित् हो वनमाली को वस्त्राभूषण धनादि ईनाम देकर प्रसन्न किया। सारे नगरमें आनंद भेरी बजवाई । आनंद भेरी सुनकर सब नगर निवासियों ने राजा के साथ चारण ऋद्धिधारी मुनि की वन्दना को प्रस्थान किया ।

  राजा ने अपने साथमें अत्यंत सुन्दर अष्ट द्रव्य मुनि पूजा हेतु लिये और अनेक गाजे बाजे दुन्दुभि के साथ उद्यान में पहुंचा, वहां पहुँचकर चैत्यालय की वन्दना की, सर्व प्रथम चैत्यालय को तीन प्रदक्षिणा दी तथा भगवान की स्तुति स्तवन रूप स्तवन व गुण स्तवन करता हुआ साष्टांग नमस्कार किया।

  फिर भगवान को मणिमय सिंहासन पर बिराजमान कर बडे उत्साह के साथ पंचामृत कलशाभिषेक किया व अष्ट द्रव्यों से पूजा की । भगवत् आराधना के पश्चात् राजा मुनिराज के पास पहुंचा व नमस्कार कर चरण समीप बैठ गया और मुनिराज से प्रार्थना की-है मुनिवर ! कृपाकर धर्म श्रवण कराओ ।

  उधर रानी पृथ्वीदेवी ने (राजाकी पट्टरानी ने) दोनों कर जोड़े विनम्र निवेदन किया कि हे मुनिवर ! इस भवमें मुझे सब सुख प्राप्त है, परन्तु संतान के अभावमें मेरा जन्म निर्थक हैं ।

  कुछ क्षण रुककर मुनिराज ने जवाब दिया कि हे देवी ! तुम्हारे अन्तराय कर्मका उदय है, अस्तु तुम्हारे कोई संतान नहीं है। रानीने पुनः निवेदन किया कि हे महाराज ! ऐसा कोनसा पूर्वभवका उदय है, कृपाकर समझाइये, अर्थात् मेरे अंतराय कर्म होनेका पूर्व भव सुनाइये-भरतक्षेत्र में काश्मीर नाम का एक विशाल देश हैं जिसमें रत्नसंचयपुर नामका एक सुन्दर नगर हैं। वहां एक वैश्य कुल में उत्पन्न श्रीवित्स नामका राजा सेठ रहता था। जिसकी सेठानी का नाम श्रीमती था। वह अत्यंत सुन्दर एवं गुणवान थी। दोनों सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते थे । तब इसी नगर में चैत्यालय की वन्दना हेतु मुनिगुप्त नामके दिव्यज्ञान धारी अन्य ५०० मुनियोंके साथ पधारे।

  मुनिगण के दर्शन पाकर राजा सेठ अत्यंत प्रसन्न हुआ और अपना जन्म सफल समझा । उसने मुनि महाराज को नमोस्तु कर मुनिसंघ को अपने उद्यानमें ले गया। घर जाकर अपनी स्त्री श्रीमती से कहा कि तुम आहार की व्यवस्था शीघ्र करो, आज हमारा पुण्योदय हैं जिससे विशाल मुनि संघ का आगमन हुआ है।

  किंतु सेठानी ने सुनी अनसुनी कर दी और कोई व्यवस्था नहीं की । सेठ स्वयं आया और शुद्धतापूर्वक बहुतसे पकवान तैयार कर सात सात गुणो से नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया । सबके निरंतराय आहार से वह बहुत संतुष्ट हुआ । महाराजने सेठको अक्षयदानमस्तु' नामका आशिर्वाद दे विहार किया।

  इधर सेठानी श्रीमती अत्यंत क्रोधित हुई और अन्तराय कर्मका बन्ध हो गया, उसी अन्तराय कर्मसे तेरे इस भवमें सन्तान नहीं हैं।

  रानी ने मुनि महाराज के मुंह से अपना पूर्व भव सुना तो वह अपने कुकृत्य पर अत्यंत दुःखी हुई और प्रार्थना की कि है मुनिराज ! अंतराय कर्म नष्ट हो इसके लिये कोई उपाय बताओ जिससे मुझे संतान-सुखकी प्राप्ती हो ।

  मुनि ने कहा-है महादेवी ! तुम अपने कर्मो का क्षय करने हेतु अक्षयतृतीया व्रत विधि पूर्वक करो। यह व्रत सर्य सुखको देनेवाला तथा अपनी इष्ट पूर्ति करनेवाला हैं।

  रानी ने प्रश्न किया-है मुनिवर ! यह व्रत पहिले किसने किया और क्या फल पाया ? इसकी कथा सुनाइये-

   मुनिराज ने कहा कि राणी ! इसकी भी पूर्वकथा सुनो- विशाल जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्रके विषे मगधदेश नाम एक देश हैं। उसी देशमें एक नदी के किनारे सहस्त्रकूट नाम का चैत्यालय स्थित हैं । उस चैत्यालय की वन्दना हेतु एक धनिक नामका वैश्य अपनी सुन्दरी नामा स्त्री सहित गया।वहां कुण्डल पंडित नामका एक विद्याधर अपनी स्त्री मनोरमा देवी सहित उक्त व्रत (अक्षय तीज व्रत) का विधान कर रहें थे । उस समय (पती पत्नी) धनिक सेठ व सुन्दरी नामा स्त्री ने विद्याधर युगल से पूछा कि यह आप क्या कर रहे हो-अर्थात् यह किस व्रत का विधान हैं ?

   विद्याधर ने जवाब दिया कि इस अवसर्पिणी काल में अयोध्या नगरी में पहिले नाभिराय नामके अन्तिम मनु हुए । उनके मरुदेवी नामकी पट्टरानी थी। रानी के गर्भ में जब प्रथम तीर्थकर आदिनाथ आये तब गर्भकल्याणक उत्सव देवों ने बडे ठाठ से मनाया और जन्म होने पर जन्म कल्याणक मनाया । फिर दीक्षा कल्याणक होने के बाद आदिनाथ जीने छः मास तक घोर तपस्या की।छ: माहके बाद चर्या (अहार) विधि के लिए आदिनाथ भगवान ने अनेक ग्रामके नगर शहरमें विहार किया किंतु जनता व राजलोगों को आहार की विधि मालूम न होने के कारण भगवान को धन, कन्या, पैसा, सवारी आदि अनेक वस्तु् भेंट की । भगवानके यह सब अंतराय का कारण जानकर पुनः वन में पहुँच छः माह की तपश्चरण योग धारण कर लिया।

  अवधि पूर्ण होने के बाद पारणा करने के लिये चर्या मार्ग से इर्यापथ शुद्धि करते हुए ग्राम नगरमें भ्रमण करते करते कुरुजांगल नामक देशमें पधारे । वहां हस्तिनापुर नामके नगर में कुरुवंश का शिरोमणि महाराजा सोम राज्य करते थे ।उनके श्रेयांस नामका एक भाई था उसने सर्वार्थसिद्धि नामक स्थान से चयकर यहां जन्म लिया था।

   एक दिन रात्रि के समय सोते हुए उसे रात्रिके आखिरी भाग में कुछ स्वप्न आये । उन स्वप्नो में मंदिर, कल्पवृक्ष सिंह,वृषभ, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, आग, मेंगल, द्रव्य यह अपने राजमहल के समक्ष स्थित हैं ऐसा उस स्वप्न में देखा तदनंतर प्रभात वेला में उठकर उक्त स्वप्न अपने ज्येष्ठ भ्राता से कहा-तब ज्येष्ठ भ्राता सोमप्रभ ने अपने विद्वान पुरोहित को बुलाकर स्वप्नों का फल पूछा । पुरोहित ने जवाब दिया हे राजन् ! आपके घर श्री आदिनाथ भगवान पारणाके लिये पधारेंगे, इससे सबको आनन्द हुआ ।

   इधर भगवान आदिनाथ आहार हेतु इ्या समितिपूर्वक भ्रमण करते हुए उस नगरके राजमहलके सामने पधारे तब सिद्धार्थ नामका कल्पृक्ष ही मानो अपने सामने आया है-ऐसा साबको भास हुआ । राजा श्रेयांस को आदिनाथ भगवान का श्रीमुख देखते ही उसी क्षण अपने पूर्वभव में श्रीमती वज्ज जंघकी अवस्था में एक सरोवरके किनारे दो चारण मुनियोंको आहार दिया था-उसका जातिस्मरण हो गया। अतः आहार दान की समस्त विधि जानकर श्री आदिनाथ भगवानको तीन प्रदक्षिणा देकर पडगाहन किया व भोजनगृहमें ले गये ।

   प्रथम दान विधि कर्ता ऐसा वह दाता श्रेयांस राजा और उनकी धर्मपत्नी सुमतीदेवी व ज्येष्ठ बंधु सोमप्रभ राजा अपनी पत्नी लक्ष्मीमती सहित आदि सबोंने मिलकर श्री आदिनाथ भगवानको सुवर्ण कलशों द्वारा तीन खण्डी (बंगाली तोल) इक्षुरस नवधा भक्तिपूर्वक आहारमें दिया । तीन खण्डों में से एक खण्डी इक्षुरस तो अंजूलीमें होकर निकल गया और दो खण्डी रस पेटमें गया ।

  इस प्रकार भगवान आदिनाथकी आहार चर्या निरन्तराय सम्पन्न हुई । इस कारण उसी वक्त स्वर्ग के देवोंने अत्यंत हर्षित होकर पंचाश्चर्य (रत्न - वृष्ट, पुष्पवृष्टि गन्धोदक वृष्टि देव दुंदुभि, बाजोंका बजना व जय जयकार शब्दका होना) वृष्टि हुई और सबंने मिलकर अत्यंत प्रसन्नता मनाई।

  आहार चर्या करके वापिस जाते हुए भगवान आदिनाथने सब दाताओंको 'अक्षयदानस्तु अरथात् दान इसी प्रकार कायम रहे। इस आशयका आशीर्वाद दिया, यह आहार वैशाख सुदी तीजको सम्पन्न हुआ था।

   जब आदिनाथ निरन्तराय आहार करके वापिस विहार कर गये । उसी समयसे अक्षयतीज नामका पुण्य दिवस प्रारंभ हुआ । (इसीको आखा तीज भी काहते हैं) यह दिन हिंदु धर्म में भी बहुत पवित्र माना जाता हैं । इस रोज शादी विवाह प्रचुर मात्रा में होते हैं।

  श्रेयांस राजाने आदि तीर्थकर को आहार देकर दानकी उन्नति की दानको प्रारंभ किया । इस प्रकार दानकी उन्नति व महिमा समझकर भरतचक्रवर्ती, अकम्पन आदि राजपुत्र व सपरिवारसहित श्रेयांस व उनके सह राजाओ का आदरके साथ सत्कार किया ।प्रसन्रचित्त हो अपने नगरको वापिस आये ।

   उक्त सर्व वृत्तांत (कथा) सुप्रभनामके चारण मुनिके मुखसे पृथ्वीदेवीने एकाग्र चित्तसे श्रवण किया । वह बहुत प्रसन्न हुई। उमने मुनिको नमस्कार किया । तथा उक्त अक्षयतीज व्रत को ग्रहण करके सर्व जन परिजन सहित अपने नगरको वापिस आये । पृथ्वीदेवीने (समयानुसार ) उस ग्रतकी विधि अनुसार सम्पन्न किया । पश्चात् यथाशक्य उद्यापन किया । चारों प्रकारके दान चारों संघको बांटे । मन्दिरोंमें मूर्तियां बिराजमान की । चमर, छत्र आदि बहुतसे वस्त्राभूषण मन्दिरजीको भेट चढाये।

  उक्त व्रत के प्रभावसे उसने ३२ पुत्र और ३२ कन्याओंका जन्म दिया । साथ ही बहुतसा वैभव और धन कंचन प्राप्त कराया आदि ऐश्वर्यसे समृद्ध होकर बहुत काल तक अपने पति सहित राज्यका भोग विया और अनंत ऐश्वर्यको प्राप्त किया ।

पश्चात् वह दम्पति वैराग्य प्रवर होकर जिनदीक्षा धारण करके तपश्चर्या करने लगे । और तपोबलसे मोक्ष सुखको प्राप्त किया। अस्तु ! हें भविकजनों ! तुम भी इस प्रकार अक्षय तृतीया व्रत को विधिपूर्वक पालन कर यथाशक्ति उद्यापन कर अक्षय

सुख प्राप्त करो । यह व्रत सब सुखोंको देने वाला है व क्रमशः मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है ।

इस व्रत की विधि इस प्रकार है-

   यह व्रत वैशाख सुदी तीजसे प्रारंभ होता है। और वैशाख सुदी सप्तमी तक (५ दिन पर्यत) किया जाता है । पांचों दिन शुद्धतापूर्वक एकाशन करे या २ उपवास या ३ एकाशन करे ।इसकी विधि यह है कि व्रत की अवधिमें प्रातः नैत्यिक क्रियासे निवृत्त होकर मन्दिरजीको जावे । मन्दिरजीमें जाकर शुद्ध भावोंसे भगवानकी दर्शन स्तुति करे । पश्चात् भगवान को (आदिनाथ भगवानकी प्रतिमाको) सिंहासन पर बिराजमान कर कलशाभिषेक करे । नित्य नियम पूजा भगवान आदि तीर्थकर (आदिनाथजी) की पूजा एवं पंचकल्याणक का मण्डलजी मंडवाकर मण्डलजीकी पूजा करे । तीनों काल(प्रातः मध्याहन, सांयं) निम्नलिखित मन्त्रका जाप्य (माला) करें वह सामायिक करें ।

मन्त्र-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐ अर्ह आदिनाथ तीर्थकराय गोमुख चक्रेश्वरी यक्ष यक्षी सहिताय नमः स्वाहा । प्रातः सायं-णमोकारमन्त्रका शुद्धोच्चारण करते हुए जाप्य करे ।

णमो अरिहंताणं,णमो सिद्धाणं,णमो आयरियाणं,

णमो उवज्झायाणं,णमो लोए सव्व साहूणं ।

  व्रत के समयमें गृहादि समस्त क्रियाओं से दूर रहकर स्वाध्याय, भजन, कीर्तन आदिमें समय यापन करे रात्रि जागरण करे । दिनभर जिनचैत्यालयमें ही रहें । व्रत अवधिमें ब्रह्मचर्यसे रहे । हिंसादि पांचों पापोंका अणुब्रत रूपरसे त्याग

करे । क्रोध, मान, माया, लोभ, कषायोंको शमन करे । पूजनादिके पश्चात् प्रतिदिन मुनिश्वरादि चार प्रकारके संघको चारों प्रकारका दान देवें आहार करावे फिर स्वयं पारणा करे । प्रतिदिन अक्षय तीज व्रतकी कथा सूने व सुनावे ।

(नोट-व्रतके समय स्त्री यदि रजस्वला हो जावे तो प्रतिदिन (एक) रस छोडकर पारणा करे)।

  इस प्रकार विधिपूर्वक व्रत को ५ वर्ष करे । व्रत पूर्ण होनेपर यथाशक्ति उद्यापन करे । भगवान आदिनाथकी प्रतिमा मंदिरजीमें भेंट करे तथा चार संघको चार प्रकारका दान देवे। इस प्रकार शुद्धताधूर्वक विधिवत् व्रत करनेसे सर्व सुखकी प्राप्ति होती है तथा साथही क्रमसे अक्षय सुख अर्थात् मोक्षकी प्राप्ति होती है ।