बंदों पाँचों परम-गुरु, चौबीसोंजिनराज।

करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धिकरन के काज ॥

 

सुनिए,जिन अरज हमारी, हम दोष किए अति भारी।

तिनकी अब निवृत्ति काज, तुम सरन लही जिनराज ॥

 

इक बे ते चउ इंद्री वा, मनरहितसहित जे जीवा।

तिनकी नहिं करुणा धारी, निरदई ह्वै घात विचारी ॥

 

समारंभ समारंभ आरंभ, मनवच तन कीने प्रारंभ।

कृत कारित मोदन करिकै, क्रोधादि चतुष्ट्‌य धरिकै॥

 

शत आठ जु इमि भेदन तै, अघकीने परिछेदन तै।

तिनकी कहुँ कोलौं कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी॥

 

विपरीत एकांत विनय के, संशयअज्ञान कुनयके।

वश होय घोर अघ कीने, वचतै नहिं जात कहीने॥

 

कुगुरुनकी सेवा कीनी, केवलअदयाकरि भीनी।

याविधि मिथ्यात भ्रमायो, चहुँगति मधि दोष उपायो॥

 

हिंसा पुनि झूठ जु चोरी, पर-वनितासोंदृग जोरी।

आरंभ परिग्रह भीनो, पन पाप जु या विधि कीनो॥

 

सपरस रसना घ्राननको, चखुकान विषय-सेवनको।

बहु करम किए मनमाने, कछु न्याय-अन्याय न जाने॥

 

फल पंच उदंबर खाये, मधुमांस मद्य चित्त चाये।

नहिं अष्ट मूलगुण धारे, विषयन सेये दुखकारे॥

 

दुइवीस अभख जिन गाये, सोभी निस दिन भुँजाये।

कछु भेदाभेद न पायो, ज्यों त्यों करि उदर भरायौ॥

 

अनंतानु जु बंधी जानो, प्रत्याख्यानअप्रत्याख्यानो।

संज्वलन चौकड़ी गुनिये, सब भेद जु षोडश मुनिये॥

 

परिहास अरति रति शोग, भयग्लानि तिवेद संजोग।

पनवीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम॥

 

निद्रावश शयन कराई, सुपनेमधि दोष लगाई।

फिर जागि विषय-वन भायो, नानाविध विष-फल खायो॥

 

आहार विहार निहारा, इनमेंनहिं जतन विचारा।

बिन देखी धरी उठाई, बिन सोधी बसत जु खाई॥

 

तब ही परमाद सतायो, बहुविधिविकल्प उपजायो।

कुछ सुधि बुधि नाहिं रही है, मिथ्या मति छाय गई है॥

 

मरजादा तुम ढिंग लीनी, ताहूँमेंदोष जु कीनी।

भिन-भिन अब कैसे कहिये, तुम खानविषै सब पइये॥

 

हा हा! मैं दुठ अपराधी, त्रस-जीवन-राशिविराधी।

थावर की जतन ना कीनी, उरमें करुना नहिं लीनी॥

 

पृथ्वी बहु खोद कराई, महलादिकजागाँ चिनाई।

पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखातै पवन बिलोल्यो॥

 

हा हा! मैं अदयाचारी, बहुहरितकाय जु विदारी।

तामधि जीवन के खंदा, हम खाये धरि आनंदा॥

 

हा हा! मैं परमाद बसाई, बिनदेखे अगनि जलाई।

ता मधि जे जीव जु आये, ते हूँ परलोक सिधाये॥

 

बींध्यो अन राति पिसायो, ईंधनबिन सोधि जलायो।

झाडू ले जागाँ बुहारी, चिवंटाआदिक जीव बिदारी॥

 

जल छानी जिवानी कीनी, सोहू पुनि डार जु दीनी।

नहिं जल-थानक पहुँचाई, किरिया विन पाप उपाई॥

 

जल मल मोरिन गिरवायौ, कृमि-कुलबहु घात करायौ।

नदियन बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये॥

 

अन्नादिक शोध कराई, तामेजु जीव निसराई।

तिनका नहिं जतन कराया, गलियारे धूप डराया॥

 

पुनि द्रव्य कमावन काजै, बहुआरंभ हिंसा साजै।

किये तिसनावश अघ भारी, करुना नहिं रंच विचारी॥

 

इत्यादिक पाप अनंता, हमकीने भगवंता।

संतति चिरकाल उपाई, बानी तैं कहिय न जाई॥

 

ताको जु उदय अब आयो, नानाविधिमोहि सतायो।

फल भुँजत जिय दु:ख पावै, वचतै कैसे करि गावै॥

 

तुम जानत केवलज्ञानी, दु:खदूर करो शिवथानी।

हम तो तुम शरण लही है, जिन तारन विरद सही है॥

 

जो गाँवपति इक होवै, सोभी दुखिया दु:ख खोवै।

तुम तीन भुवन के स्वामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी॥

 

द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीताप्रतिकमल रचायो।

अंजन से किये अकामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी।

 

मेरे अवगुन न चितारो, प्रभुअपनो विरद निम्हारो।

सब दोषरहित करि स्वामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी॥

 

इंद्रादिक पद नहिं चाहूँ, विषयनिमें नाहिं लुभाऊँ।

रागादिक दोष हरीजै, परमातम निज-पद दीजै॥

 

दोषरहित जिन देवजी, निजपददीज्यो मोय।

सब जीवन को सुख बढ़ै, आनंद मंगल होय॥

 

अनुभव मानिक पारखी, ‘जौहरि’ आप जिनंद।

यही वर मोहि दीजिए, चरण-सरण आनंद ॥