दोहा

सुखदायक सुख निधि सदा, गुण अनन्त सुखधाम।

विघ्न विनाशक चंद्रप्रभ! बारम्बार प्रणाम।।

गुरु गौतम गणधर नमं, कुन्दकुन्द आचार्य।

पूज्यपाद अकलंक को, सिद्ध हेतु मम कार्य।।

चंदन षष्ठी व्रत महा, पूजा अति सुखदाय।

भव बाधा के नाश हित, करना चित उमगाय।।

।।इति पुष्पांजलि क्षिपेत् ।।

 

{प्रथम कोष्ठ पूजा}

 

चन्द चिन्ह पद में है जिनके, चंचल चित्त जहाँ ठहराय।

श्वेतवर्ण अतिआनन्ददायक,भक्तोंकेचितकोहरषाय ।।

दोष विनाशक तिहूँ जग शासक, दया धुरंधर परम उदार ।

चन्द्र समान शांति सुखदायक नमों चन्द्रप्रभ बारंबार।।

ॐ ह्रीं श्रीचन्दन- षष्ठी व्रतो श्रीचन्द्रप्रभ परमदेव । अत्र अवतर अवतर संवोषट आह्वाननम।

ॐ ही श्रीचन्दन- षष्ठी व्रतो श्रीचन्द्रप्रभ परमदेव ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।

ॐ ह्रीं श्रीचन्दन- षष्ठी व्रतो श्रीचन्द्रप्रभ परमदेव! अब मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।

 

अष्टक

उज्ज्वल यश सम निर्मल जल ले, आया मैं चरणों में नाथ।

जन्म जरा औ' मरण मिटाकर, प्रभो! निभाओ मेरा साथ।।

चन्द्रप्रभ अष्टम तीर्थंकर चन्द्रनाथ त्रिभुवन के राय।

चन्दन - षष्ठी व्रत कर पूजा, रोग शोक दुख दारिद जाय।।

ॐ ह्रीं चन्दन षष्ठी चन्द्रप्रभोदेवाय जन्म-जरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा||1||

 

मलयागिरि का लेकर चन्दन, केशर संग मिलाय नाथ।

भव-भव के संताप मेट दो, बार-बार में जोई हाथ।।

चन्द्रप्रभ अष्टम तीर्थंकर चन्द्रनाथ त्रिभुवन के राय।

चन्दन - षष्ठी व्रत कर पूजा, रोग शोक दुख दारिद जाय।।

ॐ ह्रीं चन्दन षष्ठी चन्द्रप्रभोदेवाय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा||2||

 

मुक्ता फल सम उज्ज्वल अक्षत, लेकर आया तेरे द्वार।

अक्षय पद दे दीजिए मुझको,हे अक्षयसुख के भंडार।।

चन्द्रप्रभ अष्टम तीर्थंकर चन्द्रनाथ त्रिभुवन के राय।

चन्दन - षष्ठी व्रत कर पूजा, रोग शोक दुख दारिद जाय।।

ॐ ह्रीं चन्दन षष्ठी चन्द्रप्रभोदेवाय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा||3||

 

सब प्रकार के फूल सुगंधित, दशों दिशा जिनसे महकाय।

काम बाण विध्वंस हेतु ले, मन वच तन से पूजू पाय।।

चन्द्रप्रभ अष्टम तीर्थंकर चन्द्रनाथ त्रिभुवन के राय।

चन्दन - षष्ठी व्रत कर पूजा, रोग शोक दुख दारिद जाय।।

ॐ ह्रीं चन्दन षष्ठी चन्द्रप्रभोदेवाय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा||14||

 

सुन्दर सरस स्नेहयुत, व्यंजन चरण चढ़ाऊँ भर-भर थाल।

क्षुधा वेदनी नाश करो मम, दीनबन्धु शरणागत पाल ।।

चन्द्रप्रभ अष्टम तीर्थंकर चन्द्रनाथ त्रिभुवन के राय।

चन्दन - षष्ठी व्रत कर पूजा, रोग शोक दुख दारिद जाय।।

ॐ ह्रीं चन्दन षष्ठी चन्द्रप्रभोदेवाय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा||5||

 

मणिमय दीप सजाकर सुन्दर, करुं आरती त्रिभुवन ईश।

भ्रम तम मोह निवारो मेरा, पुनि-पुनि चरण नमाऊँ शीश।।

चन्द्रप्रभ अष्टम तीर्थंकर चन्द्रनाथ त्रिभुवन के राय।

चन्दन - षष्ठी व्रत कर पूजा, रोग शोक दुख दारिद जाय।।

ॐ ह्रीं चन्दन षष्ठी चन्द्रप्रभोदेवाय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा||6||

 

दश विधि गंध मनोहर लेकर , तुम चरणन ढिग खेऊ आय।

अष्ट कर्म कष्टों के कारण, दयानिधे! सारे जल जाय।।

चन्द्रप्रभ अष्टम तीर्थंकर चन्द्रनाथ त्रिभुवन के राय।

चन्दन - षष्ठी व्रत कर पूजा, रोग शोक दुख दारिद जाय।।

ॐ ह्रीं चन्दन षष्ठी चन्द्रप्रभोदेवाय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा||7||

 

नीबू आम अनार नारंगी, श्रीफल लौंग छुहारा लाय।

चरण कमल पूजूं प्रभु तेरे, महा मोक्ष फल आनन्ददाय।।

चन्द्रप्रभ अष्टम तीर्थंकर चन्द्रनाथ त्रिभुवन के राय।

चन्दन - षष्ठी व्रत कर पूजा, रोग शोक दुख दारिद जाय।।

ॐ ह्रीं चन्दन षष्ठी चन्द्रप्रभोदेवाय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा||8||

 

जल फलादि सब द्रव्य मिलाकर, चरण चढ़ाऊं हे जगपाल।

हो अनर्घ्य पद प्राप्त मुझे यह, करुं प्रार्थना दीनदयाल।।

चन्द्रप्रभ अष्टम तीर्थंकर चन्द्रनाथ त्रिभुवन के राय।

चन्दन - षष्ठी व्रत कर पूजा, रोग शोक दुख दारिद जाय।।

ॐ ह्रीं चन्दन षष्ठी चन्द्रप्रभोदेवाय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा||9||

 

जयमाला

 

दोहा

वन्दौ चन्द्रप्रभ सदा, जगती तल आधार ।

देव इन्द्र नागेन्द्र भी, पा न सके गुण पार ।।

है अचिन्त्य महिमा अगम, मिला न अब तक थाह।

गुण वर्णन क्या कर सकें, गुणातीत तुम नाह।।

जय चन्द्रनाथ देवाधिदेव, सुर नर विद्याधर करत सेवा

जय राग-द्वेष मद मोह मार, तब जीत लिए तुम निराकार ।।

जयभव-भव भंजननिर्विकार,जय रोग शोकदुःख विपदटार।

जय शांति सुधा के सिंधु देव, तुम स्वयं बुद्ध ज्ञाता स्वयमेव।।

जय मोह शत्रु नाशक प्रवीन, जय ज्ञान ध्यान में सदालीन।

जय महा तपस्वी गुण निधान, जय दयानिधे! सुख वीर्यवान ।।

जय जन्म-जरा-मृत-हरण धीर , जय खेद स्वेद विजयी सुधीर ।

तुम दोष अठारह सभी जीत, हो गए पूर्ण है गुणातीत।।

पा लिया सहज दर्शन सुज्ञान, सुख वीर्य अनन्त दयानिधान।

सब को दे तुमने सदुपदेश, हर लिये जगत के सभी क्लेश।।

जय भव-भव की हर पीर नाथ, सन्मार्ग दिखा ना छोड़ साथ।

जय धर्म धुरंधर धीर वीर, सब हर लो मेरे कष्ट पीर ।।

मैं यही याचना करु देव, हो ज्ञान प्रगट जानूं स्वयमेव।

भव-भव के पातक कटें आप, सब शांत स्वयं हो विघ्नताप।।

मिल जाए मुझे वह निज स्वरूप जो समझू अपना स्वयं रूप।

हों दूर सभी मद मोह जाल, मद्ज्ञान प्राप्त हो सदा काल।।

है यही प्रार्थना और नाथ, तेरे चरणों के रहूँ साथ।

वरदान मिले बस यही एक, तुम सदा निभाते रहो टेक।।

 

धत्ता

जय ज्ञान उजागर , गुण गण आगर, मोह महा मद हर्ता हो।

जय सन्मति दाता, ज्ञान प्रदाता, विश्ववंद्य सुख कर्ता हो।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन- षष्ठी-व्रत श्रीचन्द्रप्रभु- जिनाय जयमाला अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।

 

 

{द्वितीय कोष्ठ पूजा}

 

सोरठा

निर्मल जल शुचि लाय, चरण चढ़ाऊँ चन्द्र के।

जन्म रोग मिट जाय, चन्दन षष्टी व्रत किए।।1।।

ॐ ह्रीं क्षीरवत् उजज्वल यश क्षारकाय श्रीचन्द्रप्रभ- जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

 

चंदन मलय सुलाय, केशर से जिन पूजते।

भव बाधा नश जाय, चन्दन षष्ठी व्रत किए।।2।।

ॐ ह्रीं क्षीरवत् उजज्वल यश क्षारकाय श्रीचन्द्रप्रभ- जिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

 

उज्ज्वल अक्षत लाय, मन वच जिन पूजा करे

अक्षय पद मिल जाय, चन्दनषष्ठी व्रत किए।।3 ।।

ॐ ह्रीं क्षीरवत् उजज्वल यश क्षारकाय श्रीचन्द्रप्रभ- जिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।

 

पुष्प सुगन्धित लाय, श्री जिनकी पूजा करे।

काम बाण नश जाय, चन्दन षष्ठी व्रत किए।।4।।

ॐ ह्रीं क्षीरवत् उजज्वल यश क्षारकाय श्रीचन्द्रप्रभ- जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

 

व्यंजन सरस बनाय, भर-भर थाल चढ़ाइए।

क्षुधा रोग मिट जाय, चन्दन षष्ठी व्रत किए।।5।।

ॐ ह्रीं क्षीरवत् उजज्वल यश क्षारकाय श्रीचन्द्रप्रभ- जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

 

सुन्दर दीप संजोय, कर-कर जिनवर की आरती।

भ्रम तम सब क्षय होय, चन्दन षष्ठी व्रत किए।।6।।

ॐ ह्रीं क्षीरवत् उजज्वल यश क्षारकाय श्रीचन्द्रप्रभ- जिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

 

धूप सुगन्धित खोय, जिनवर आगे अग्नि में।

अष्ट कर्म क्षय होय, चन्दन षष्ठी व्रत किए।।7।।

ॐ ह्रीं क्षीरवत् उजज्वल यश क्षारकाय श्रीचन्द्रप्रभ- जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

 

ले नीबू आम अनार, श्रीफल भेंट करूं।

प्रभु मोक्ष महा फल देहु ये ही अर्ज करूं।।8।।

ॐ ह्रीं क्षीरवत् उजज्वल यश क्षारकाय श्रीचन्द्रप्रभ- जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

 

जल फल आदि मिलाय, अयं चढ़ाऊँ चर्ण में।

अनुपम पद मिल जाय, चन्दन षष्ठी व्रत किए।।9।।

ॐ ह्रीं क्षीरवत् उजज्वल यश क्षारकाय श्रीचन्द्रप्रभ- जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

 

जयमाला

 

दोहा

कृपा करो मुझ पर करो कृपा सिन्धु महाराज।

अष्ट कर्म सब नष्ट कर, हे अष्टम जिनराज।।

जय जिनन्द दति चन्द नमस्ते, निर्विकार गुण वृन्द नमस्ते।

निराकार निरमान नमस्ते, गुण गरिष्ठ गुण थान नमस्ते।।

चिदानन्द चिद्रूप नमस्ते, स्वयं बुद्ध शुचि रूप नमस्ते ।

ज्ञान ध्यान शुभ योग नमस्ते, महा मोक्ष सुख, भोग नमस्ते।।

चन्द्रपुरी सुख धाम नमस्ते, जन्मभूमि अभिराम नमस्ते।

राग-द्वेष मद ध्वांत नमस्ते, शुद्ध स्वयंभू शांत नमस्ते।।

गर्भ जन्म तप ज्ञान नमस्ते, शिखर शैल निर्वाण नमस्ते।

जय जय पंच कल्याण नमस्ते, जय जय जय गुण गान नमस्ते।।

धीर वीर भगवान नमस्ते, कर्म हान गुण खान नमस्ते।

संसारांबुधि- तार नमस्ते, क्षुधा तृषादि निबार नमस्ते।।

चक्रीपद दातार नमस्ते , मुक्ति-रमा भरतार नमस्ते ।

मुझे भवोदधि तार नमस्ते, सुख दुख के आधार नमस्ते।।

हे अष्टम जिनराज नमस्ते, दयानिधे सुख साज नमस्ते।

कृपा सिंधु जग पाल नमस्ते, शरणागत प्रतिपाल नमस्ते।।

शुद्धि-बुद्धि दातार नमस्ते, सुखकारी दुखहार नमस्ते।

शांति सुधा के सार नमस्ते, चन्द्रप्रभु जग सार नमस्ते।।

रोग शोक दुख हार नमस्ते, भव-भव के दुख टार नमस्ते।

चरण शरण को तार नमस्ते, मोह महा मद मार नमस्ते।

सुख शांति विधाता शिव पद दाता, जन्म मरण भय दूर करो।

तुम ज्ञान प्रकाशक भ्रम तम नाशक, रोग शोक सन्ताप हरो।।

ॐ हीं गोक्षीरवत् उज्ज्वलयशधारकाय चन्दन-षष्ठी-व्रताद्यापने श्रीचन्द्र प्रभजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

{तृतीय कोष्ठ पूजा}

 

सोरठा

गंगा जल समनीर, निर्मल झारी में भरों।

पूजों चन्द्र सुधीर, जन्म मरण भय परिहरों।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी-व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जलं नि.।

 

चन्दन गंध समेत, घिस-घिस लायो चर्ण में।

भव भय भंजन हेतु, पूजौं श्री जिनराज को।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी-व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय चंदनं नि.।

 

मुक्ता फल सम श्वेत, अक्षत की थाली भरी।

अक्षय पद के हेतु पूजों चन्द्र जिनेश को।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी-व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षतं नि.।

 

जूही चंपक लाय पुष्प सुगन्धित आदि ले।

पूजों श्री जिनराज, काम बाण विध्वंस हित।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी-व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय पुष्पं नि.।

 

षट् रस व्यंजन लाय, स्नेह सुवासित रसमयी।

क्षुधा रोग मिट जाय, श्री जिनके पद पूजते।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी-व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय नैवेद्यं नि.।

 

जगमग दीप संवार, वाति कपूर बनाय के।

भ्रम तम जड़ से तार, श्री जिनवर नित पूजते।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी-व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय दीपं नि.।

 

धूप दशांग बनाय, खेऊ अग्नि समूह में।

कर्म बन्ध जल जाय, पूजू श्री जिन भावसों।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी-व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय धूपं नि.।

 

केला दाख मंगाय, श्री फल लौंग बादाम ले।

मोक्ष फल मिल जाय, श्री जिन पूजूं हर्ष युत।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी-व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय फलं नि.।

 

जल फल अक्षत धूप, दीप पुष्प चरु गंध ले।

पूजू श्री जिन रूप, पद अनर्घ्य के प्राप्ति हित।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी-व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य नि.।

 

जयमाला

 

दोहा

आया शरण जिनेश मैं, रखिए मेरी लाज।

भव-दधि से प्रभु तारिये, तुम ही एक जहाज।।

जय चन्द्र जिनेश दिनेश वीर जय चन्द्रानन अतिशय गंभीर।

जयशांति सुधा के सुखद सिंधु भवि कमल विकासन भव्य इंदु।।

अद्भुत महिमा तव चन्द्र नाथ, सदा निभाओ चरण साथ।

यश विमल तुम्हारा चन्द्र देव, फैला है चहुं दिशि में स्वयमेव।।

पद-पद पर करते नमस्कार, सुर नर विद्याधर गण अपार।

जय चन्द्रप्रभु तुम करे गान सब धरें तुम्हारा सुखद ध्यान।

तुम जन्म महोत्सव में जिनेश, सब देव इन्द्र आए खगेश।

ले पांडु शिला पर गया इन्द्र,अभिषेक तुम्हारा किया चन्द्र।।

निर्मल यश फैला सभी ओर, सब सदा चाहते कृपा कोर।

कुछ दिन ही तुमने राज भोग, तज दिए सभी को समझ रोग।।

जिन दीक्षा धर वन विहार, उपदेश दिया आनन्द कार।

सबको तुमने शिव मग बताय, हे दया निधे आनंद पाय।।

वे कर्म सताते महा नीच, गोता देते भव सिंधु बीच।

तुम चार घातिया किए नष्ट, निज पर के करने दूर कष्ट।।

पतितोद्धारक हे दीन बंधु उद्धार करो हे कृपा-सिंधु।

सम्मेदशैल जा किया ध्यान, पाया अति उत्तम मोक्षथान।।

मेरे उर आआ हे दयाल सब दूर करो मम जगत जाल ।

मैं भव दुःख से होकर अधीर, आया हूँ तेरी शरण वीर।।

हे जगत- बन्धु प्रभु सुन पुकार, भव सागर से अब तार-तार।।

 

धत्ता

हे हे जग् उजियाला परम कृपाला, भरो ज्ञान भंडाराजी।

मैं शरणे आया शीश नमाया, भव-भव आनन्द काराजी।।

ॐ ह्रीं श्रीचन्दन षष्ठी-व्रत श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

 

{चतुर्थ कोष्ठ पूजा}

 

अति उज्ज्वल निर्मल नीर लेकर प्रभु आया।

हर जन्म-मरण दुख नाथ इन से घबराया।।

श्री चन्द्र नाथ जिनराज तेरे चरण जजों।

हर रोग-शोक भय-क्लेश निश-दिन नाम भजों।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं नि. स्वाहा।

 

चन्दन केशर कर्पूर घिसि-घिसि कर ल्यायो।

प्रभु भव-भव कीसंताप मेटों मैं आया।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा।

 

ले उत्तम अक्षत पुंज, तेरे दर आयो।

दे अक्षय पद जिन देव, अब मैं अकुलायो।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय अक्षतान् नि. स्वाहा।

 

अति दिव्य सुगन्धित पुष्प अलि गुंजार करे।

तुम चरण चढ़ाये नाथ, मनमथ बाण हरे।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय पुष्पं नि. स्वाहा।

 

सब व्यंजन सरस मँगाय, चरण धरों तेरे।

मम क्षुधा रोग मिट जाय, पापकटें मेरे।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा।

 

शुचि सुन्दर दीप जगाय, रखता तुम आगे।

कर कृपा दयानिधि देव, मोह तिमिर भागे।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।

 

प्रिय धूप दशांग अनूप, लेकर अग्नि धरों।

सब कर्म पुंज जल जाय, तेरे चर्ण परों।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय धूपं नि. स्वाहा।

 

ले नीबू आम अनार, श्रीफल भेंट करूं।

प्रभु मोक्ष महा फल देहु ये ही अर्ज करूं।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय फलं नि. स्वाहा।

 

जल फल आदिक मिलवाय, वसु विधि अर्ध करूं।

प्रभु सहज मुक्ति मिल जाय, तेरे पांव परूं।।

ॐ ह्रीं श्री चन्दन-षष्ठी व्रत श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय अर्घ्य नि. स्वाहा।

 

जयमाला

 

दोहा

सब जीवों के प्राण धन, जग जीवन आधार।

क्यों न प्रभु सुनते कहो, मेरी आप पुकार ।

गुण गाऊं मैं आपके, निश-दिन हे भगवान।

कृपा करो सद्ज्ञान दो, जागृति मंत्र महान।।

प्रभु चन्दनाथ गुणगण अगार, तुम गुण का किसने लहा पार ।

तुमनीति निपुण जयवानदेव,जानत भव-भव की तुम स्वयमेव।।

तुम स्वयं-बुद्ध शुभ ध्यान धीर, हरते हो जग की महापीर।

उपदेशामृत बरसा अनूप, समझाया तुमने तत्व रूप।।

षट् द्रव्य बताकर सप्त तत्व, बतलाया तुमने परम तत्व।

है जीव चेतनामयी जान, जड रूप-रूप पुदगल बखान ।।

मन वचन काय की क्रिया योग, कहलाता आस्रव महा रोग।

जब आत्म साथ पुदगल प्रदेश, चिप जाय बंध होता अशेष।।

कर्मों का आना रुके आप, संवर हो जाता कटे पाप।

धीरे-धीरे जब खिरे कर्म, है वही निर्जर तत्व मर्म ।।

जब सब कर्मों का मिटे सत्व, हो प्रगट अनूपम मोक्षतत्व।

इन तत्वों का श्रद्धान पूर्ण, करने से होते कर्म चूर्ण।।

ये ही तप जप संयम पवित्र, सदृष्टि ज्ञानसम्यक् चरित्र ।

हे दया सिधु सद्ध्यान धीर, काटो भव-भव की दुःख पीर।।

हमदुखी दरिद्री दीन लोग, लग रहा हमें संसार रोग।

अब करो कष्ट चक्र चूर-चूर , उर आनन्द से भर पूर-पूर।।

 

धत्ता

यह गुणमणिमाला, परम रसाला, पढ़ते ही काटे भवफंद।

शिवसुखकारी जग दुखहारी, सहज प्रकट हो परमानन्द।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रत चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं नि. स्वाहा।

 

{ पंचम कोष्ठ पूजा}

 

कनक कलश में शुचि जल लेकर, आया नाथ तुम्हारे द्वार।

जन्म जरा औ' मरण मिटा दो, यही प्रार्थना बारंबार।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रत चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं नि. स्वाहा।

 

केशर मिश्रित वारि सुगंधित, ले तब करण चरचता नाथ।

भवभव के संताप मिटा दो, विनती करू जोड़कर हाथ।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रत चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा।

 

मोती सम शुचि अक्षत लेकर, भरकर कंचन थाल अनूप।

अक्षय पद के प्राप्ति हेतु मैं, पूजा रहा हे त्रिभुवन भूप ।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रत चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय अक्षतान् नि. स्वाहा।

 

चंपक बेल चमेली जूही, जो गुलाब के थाल सजाय।

चरण शरण में आया तेरे, कामव्यथा सारी नश जाय।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रत चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय पुष्पं नि. स्वाहा।

 

नाना विधि पकवान मनोहर, सरस शुद्ध लाया स्वादिष्ट ।

चरण कमल जिनराज पूजते, क्षुधारोग हो जावे नष्ट ।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रत चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा।

 

दीपक जग मग जग मग करता, लिये हाथ में आया देव।

ज्ञान ज्योति हो प्रकट अनूपम , हो जाऊं ज्ञाता स्वयमेव।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रत चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।

 

रुला रहे हैं अष्ट कर्म ये, भव दधि बीच मुझे लग साथ।

धूप दशांग सुगन्धित खेऊ, कर्मक्षय के कारण नाथ ।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रत चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय धूपं नि. स्वाहा।

 

श्रीफल केला दाख छुहारा, कमल बीज बादाम अनार ।

महामोक्षफल प्राप्ति हेतु मैं, आया लेकर प्रभु के द्वार।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रत चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय फलं नि. स्वाहा।

 

जल आदिक सब अष्ट द्रव्य ले, अर्घ बनाया शुद्ध पुनीत।

अब अनर्घ्य पद मिले मनोहर, औ कर्मो को लेऊ जीत।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रत चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय अर्घ्यं नि. स्वाहा।

 

जयमाला

 

दोहा

चिदानन्द चिद्रूप को, ध्याऊ बारंबार ।

विघ्न सकल सबके कटें, होवे शीघ्र सुधार।।

भव सागर का अंत ना, नौका है बेकार ।

कृपा करो अब दास पर, पहुंचे परली पार ।।

 

चौपाई

जय चन्द्रप्रभ देवाधि देव, सुर नर विद्याधर करें सेव।

तुम दिव्य विलक्षण परमधीर, हो महा सिंधु से अति गंभीर ।।

तुम दया धुरंधर दया धाम, जीता है तुमने अजय काम।

तुम शांति मूर्ति औ'सत्यनिष्ठ,समझा है जगको अति निकृष्ट ।।

धन धान्य दास दासी अनेक, सब तजे परिग्रह धर विवेक।

तज राज पाट वैभव अपार, चल दिए जान जग को असार।।

समझा दुखमय संसार रूप, तुम छोड चले जग अंध कूप।

जाना ये विषय असाध्य रोग, ठुकरा कर इनको धरा योग।।

तज गए पुत्र पुत्री सुमित्र, प्रिय बांधव स्नेही जन कलत्र।

जन परिजन से मुंह लियामोड़,बन गए संत सब विभव छोड़।।

उपदेश दिया जग को महान, करने को निज पर का कल्याण।

तप सत्य अहिंसा दया दान, सिखलाया तजना मोह मान।।

फिर तुमने कर चहुं दिशि विहार, धर्मोपदेश देकर अपार ।

तारे भव जीवनि को अनेक, बतलाकर सच्चा मार्ग एक।।

तुम पूर्ण तपस्वी ज्ञानवान, बन गए स्वयं ही अति महान।

तुमने पद अविचल किया प्राप्त कहलाए सबसे बड़े आप्त।।

अब दया दृष्टि कर लो दयाल, हम हो जावे तुमसे निहाल।

हों ज्ञानवान विद्या संयुक्त, अब वैभव युत संक्लेश मुक्त।।

तुम चरणों में मैं धरूं शीश देवाधिदेव! सुनलो मुनीश।

भव सिंधु बीच में तार-तार, करुणानिधि भव-भय हार-हार।।

 

धत्ता

जय श्री जिनचन्दा आनन्द कन्दा, जनम मरण दुख दूर करो।

मैं भव में भटका तुम बिन अटका कर्म शत्रु को चूर करो।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रत चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं नि. स्वाहा।

 

{षष्टम कोष्ठ पूजा}

 

अमल सुगन्धित वार सुलेकर, चरण कमल पर देऊ धार।

भव के कष्ट निवारण कारण, आ पहुंचा प्रभु तेरे द्वार ।।

चन्द्रकलासम शांति सुवर्द्धक, चन्द्रप्रभ सन्मति दातार ।

पूर्ण ज्ञानकीज्योतिजगा दो,हो जाऊं तुमसा अविकार ।।1।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रतोद्यापने श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

 

चन्दन केशर और कपूर घिस, चरण सरोज जजूं तव देव।

भव संताप मिटे प्रभु मेरा, पहिचाने निज को स्वयमेव।।

चन्द्रकलासम शांति सुवर्द्धक, चन्द्रप्रभ सन्मति दातार ।

पूर्ण ज्ञानकीज्योतिजगा दो,हो जाऊं तुमसा अविकार ।।2।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रतोद्यापने श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

 

उज्ज्वल यश सम धवल अनूपम, अक्षत से पूजूं पद नाथ।

अक्षय पद की प्राप्ति स्वयं हो, हो जाऊं मैं सदा अनाथ।।

चन्द्रकलासम शांति सुवर्द्धक, चन्द्रप्रभ सन्मति दातार ।

पूर्ण ज्ञानकीज्योतिजगा दो,हो जाऊं तुमसा अविकार ।।3।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रतोद्यापने श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।

 

सुन्दर फूल सुवासित की भर, अंजुलि भेंट चढ़ाता आज।।

कामव्यथा नश जाय समूची, सद्भावों का जुटे समाज।।

चन्द्रकलासम शांति सुवर्द्धक, चन्द्रप्रभ सन्मति दातार ।

पूर्ण ज्ञानकीज्योतिजगा दो,हो जाऊं तुमसा अविकार ।।4।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रतोद्यापने श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

 

महा मनोहर स्नेह प्रपूरित, उत्तम व्यंजन से भर थार।

क्षुधा वेदनी के क्षय कारण, पूजू पद तव बारंबार।।

चन्द्रकलासम शांति सुवर्द्धक, चन्द्रप्रभ सन्मति दातार ।

पूर्ण ज्ञानकीज्योतिजगा दो,हो जाऊं तुमसा अविकार ।।5।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रतोद्यापने श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

 

जगमग-जगमग दीप शिखा से, करूं आरती धरे विवेक।

नाश होय अज्ञान तिमिर का, जलें ज्ञान के दीप अनेक।।

चन्द्रकलासम शांति सुवर्द्धक, चन्द्रप्रभ सन्मति दातार ।

पूर्ण ज्ञानकीज्योतिजगा दो,हो जाऊं तुमसा अविकार ।।6।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रतोद्यापने श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

 

अगर तगर कृष्णागुरु निर्मित, धूप सुगन्धित ले भरपूर ।

खेऊ बीच हुताशन में मैं, होवें कर्म सभी चकचूर।।

चन्द्रकलासम शांति सुवर्द्धक, चन्द्रप्रभ सन्मति दातार ।

पूर्ण ज्ञानकीज्योतिजगा दो,हो जाऊं तुमसा अविकार ।।7।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रतोद्यापने श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

 

अति स्वादिष्ट सुपक्व मनोहर, फल ले चरण जजूं तिहुंकाल।

महामोक्ष फल मिले तुरत ही, कटे सकल जग के जंजाल।।

चन्द्रकलासम शांति सुवर्द्धक, चन्द्रप्रभ सन्मति दातार ।

पूर्ण ज्ञानकीज्योतिजगा दो,हो जाऊं तुमसा अविकार ।।8।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रतोद्यापने श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये-फलं निर्वपामीति स्वाहा।

 

आठ द्रव्य मिलाकर उत्तम, अर्घ बनाया पूजन काज।

भव-भवकीप्रभुव्याधिमिटादो,अविचलपददेओजिनराज।।

चन्द्रकलासम शांति सुवर्द्धक, चन्द्रप्रभ सन्मति दातार ।

पूर्ण ज्ञानकीज्योतिजगा दो,हो जाऊं तुमसा अविकार ।।9।।

ॐ ह्रीं चन्दन-षष्ठी-व्रतोद्यापने श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

 

 

जयमाला

 

दोहा

तारण तरण जिनेश हे , ध्याऊं तुम दिन-रैन।

कृपा करो निज दास पर, खुलें ज्ञान के नैन।।

तुम ज्ञान प्रकाशक भवतम नाशक सब जगके उजियारे हो।

तुम शांति प्रदाता जग विख्याता, त्रिभुवन के रखवारे हो।।

मैं दीप अनाथ महा हतभागी, रागी-द्वेषी दोषी हूँ।

मैं पर निंदक आलोचक हूँ, पंचेन्द्रि- विषय का पोषी हूँ।।

सन्मार्ग दिखाओ कष्ट मिटाओ मोह महा मद दूर करो।

मैं शरणे आया अति सुख पाया शांति सुधा रस पूर करो।।

चौ-श्रीचन्द्रप्रभ महिमा निधान, यश गौरव गरिमा सुगुणथान।

सुख शांति सुधा के जलधिरूप,शुचिसत्य अहिंसा के स्वरूप।।

तुम चन्द्र वदन लखि चन्द्र देव, सुर नर विद्याधर करत सेव।

तुम गुणगण को, को! लहे पार, कर सके नहीं वर्णन अपार ।।

महिमा प्रभु तेरी गत व्याप्त तुम परम पिता सर्वज्ञ आप्त।

तुम चन्द्रप्रभ जग के सुचन्द्र, यश गान करें निशिदिन कवींद्र ।।

तुमने संसार असार जान, तज दिया सकल वैभव महान ।

जनपरिजन समझा पापमूल, ये ही दुख दायक महाशूल।।

इनसे मुंह मोड़ा हे जिनेश, मिट गई सकल संपत्ति अशेष।

वन में जा दीक्षा धरी आप, तोड़ बंधन सब पुण्य-पाप।।

क्रोधादि कषाए भगा दूर, रागादि दोष को किया चूर।

मद मोह मान माया प्रचंड, कर दिए सहज ही खंड-खंड।।

कर चार घातिया कर्म नाश, पा लिया आपने शुचि प्रकाश।।

सुख दर्शन वीर्य अनन्त ज्ञान, कर प्राप्त बने तुम शक्तिमान।।

पा केवलज्ञान जिनेशचन्द्र, भविजीवन को आनन्दकन्द।

कर समवशरण रचना विशाल,कर दिया दूर भ्रम तिमि रजाल।।

तुम गंध कुटी राजत जिनेश, जयकार करे सुर नर अशेष।

मणिमय सिंहासन लसत जान, ता ऊपर चउ अंगुल प्रमान।

प्रभु आप विराजो जगतईश, सुर नर इन्द्रादिक नमत शीश।।

चहुँ दिशि मुख दीखत है अनूप,खिर रही दिव्यध्वनि विशदरुप।।

तुमने दर्शाया जगतरूप, समझाया सबको शिवस्वरूप।।

अमृतमय वाणी का प्रभाव, तज दिए सिंह मृग बैर-भाव।।

बैठे मयूर अहि एक ठौर, ना बैर परस्पर रहा और।।

सुन जिनवाणी आनन्दकार, हों मन में हर्षित सब अपार।

कितने जाते भव सिंधु पार, निश्चित हो पाते मुक्ति द्वार।।

प्रभु करो वेग मेरी सहाय,मैं तुम चरणों में पड़ा आय।

मेरी भव बाधा टार-टार, पहुंचा मुझको अब लोक पार ।।

मेरी यह विनती बार-बार भव सागर अब तार तार ।

चन्द्र प्रभु स्वामी है जगनामी दयाधुरंधर दया करो।

अनुपम गुण गाऊँ शीश झुकाऊं प्रभु मेरे सब पाप हरो।।

ॐ ह्रीं श्रीचन्दन षष्ठि - व्रत श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

दोहा

चन्दन षष्ठी व्रत करे, जो भवि मन वच काय।

सब प्रकार आनन्द हो, विघ्न सकल नश जाय।

।। इत्याशीर्वादः।।

 

(दोहा)

श्रावण शुक्ल अष्टमी, है रविवार महान।

संवत दो हजार अरु, ऊपर चौदह जान।।

व्रत पूजा रचना करी, संस्कृत के अनुसार

भावसहित पूजा किए, लग जाते भव पार।।

।।इति।।

 

नोट : अध्यापन करना हो तो व्रत की जगह व्रतोद्यापन बोलें।

 

 

व्रतोद्यापन विधि

 

भादव कृष्णा षष्ठि को, इस व्रत को दिन जान।

मन तन से आरंभ तज, करे जिनेश्वर ध्यान।

सब प्रकार रस त्याग कर ले उपवास महान ।

पूजा जप स्वाध्याय में करे कर्म की हान।

छह वर्षों तक व्रत करें, भविजन इसी प्रकार।

फिर व्रत उद्यापन करें, तज कर सकल विकार।।

यथाशक्ति मंडल मडा पूजा रचे अनूप ।

रोग शोक भय दूर हों, पावे शुद्ध स्वरूप।।

उत्तम लेकर गंथ छह , धरे हेतु स्वाध्याय।

हानि होय अज्ञान की, संशय तिमिर नशाय।।

वा असहाय सु छात्र हो, उनकी करे सहाय।

पढ़ने में सुविधा मिले , ऐसा करे उपाय।।

अति प्राचीन सुग्रंथ का, लेय प्रकाशन भार ।

हो प्रभावन धर्म की, फैले ज्ञान प्रचार।।

अथवा ऐसे कार्य हों, जिनसे बढ़ती शान।

देश राष्ट्र औ' जाति का होय स्व-पर कल्याण।।

उद्यापन की शक्ति ना, तो दुगना व्रत जान ।

ग्रंथों में ये ही कहा, निश्चित रूप प्रमान।।

।।इति शुभम् ।।