दर्शन श्री देवाधिदेव का, दर्शन पाप विनाशन है।
दर्शन है सोपान स्वर्ग का, और मोक्ष का साधन है॥
श्री जिनेंद्र के दर्शन औ, निर्ग्रन्थ साधु के वंदन से।
अधिक देर अघ नहीं रहै, जल छिद्र सहित कर में जैसे॥
वीतराग मुख के दर्शन की, पद्मराग सम शांत प्रभा।
जन्म-जन्म के पातक क्षण में, दर्शन से हों शांत विदा॥
दर्शन श्री जिन देव सूर्य, संसार तिमिर का करता नाश।
बोधि प्रदाता चित्त पद्म को, सकल अर्थ का करे प्रकाश॥
दर्शन श्री जिनेंद्र चंद्र का, सदधर्मामृत बरसाता।
जन्म दाह को करे शांत औ, सुख वारिधि को विकसाता॥
सकल तत्व के प्रतिपादक, सम्यक्त्व आदि गुण के सागर।
शांत दिगंबर रूप नमूँ, देवाधिदेव तुमको जिनवर॥
चिदानंदमय एक रूप, वंदन जिनेंद्र परमात्मा को।
हो प्रकाश परमात्म नित्य, मम नमस्कार सिद्धात्मा को॥
अन्य शरण कोई न जगत में, तुम हीं शरण मुझको स्वामी।
करुण भाव से रक्षा करिए, हे जिनेश अंतर्यामी॥
रक्षक नहीं शरण कोई नहिं, तीन जगत में दुख त्राता।
वीतराग प्रभु-सा न देव है, हुआ न होगा सुखदाता॥
दिन दिन पाऊँ जिनवर भक्ति, जिनवर भक्ति जिनवर भक्ति।
सदा मिले वह सदा मिले, जब तक न मिले मुझको मुक्ति॥
नहीं चाहता जैन धर्म के बिना, चक्रवर्ती होना।
नहीं अखरता जैन धर्म से, सहित दरिद्री भी होना॥
जन्म जन्म के किये पाप औ, बंधन कोटि-कोटि भव के।
जन्म-मृत्यु औ जरा रोग सब, कट जाते जिनदर्शन से॥
आज ‘युगल’ दृग हुए सफल, तुम चरण कमल से हे प्रभुवर।
हे त्रिलोक के तिलक! आज, लगता भवसागर चुल्लू भर।।