धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में विशाल नाम का एक नगर है। वहाँ का प्रियंकर नाम का राजा अत्यंत नीतिनिपुण और प्रजावत्सल था। रानी का नाम प्रियंकरा था, और इसके गर्भ से उत्पन्न हुई कन्या का नाम मृगांकलेखा था।

 

इसी राजा के मंत्री का नाम मतिशेखर था। इस मंत्री के उसकी शशिप्रभा स्त्री के गर्भ से कमलसेना नाम की कन्या थी।इसी नगर के गुणशेखर नामक एक सेठ के यहाँ उसकी शीलप्रभा नाम की सेठानी से एक कन्या मदनवेगा नाम की हुई थी और लक्षभट नामक ब्राह्मण के घर चन्द्रभागा भार्या से रोहिणी नाम की कन्या हुई थी।

 

ये चारों (मृगांकलेखा, कमलसेना, मदनवेगा और रोहिणी) कन्याएं अत्यंत रूपवान, गुणवान तथा बुद्धिमान थी। वे सदैव धर्माचरण में सावधान रहती थीं। एक समय बसंत ऋतु में ये चारों कन्याएँ अपने-अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर वनक्रीड़ा के लिए निकलीं, सो भ्रमण करती-करती कुछ दूर निकल गई । जबकि ये वन की स्वाभाविक शोभा को देखकर आल्हादित हो रही थीं कि उसी समय उनकी दृष्टि उस वन में विराजमान श्री महामुनिराज पर पड़ी और वे विनयपूर्वक उनको नमस्कार करके वहाँ बैठ गई और धर्मोपदेश सुनने लगीं। पश्चात् मुनि तथा श्रावकों का द्विविध प्रकार उपदेश सुनकर वे चारों कन्याएँ हाथ जोड़कर पूछने लगीं-हे नाथ! यह तो हमने सुना, अब दया करके हमको ऐसा मार्ग बताइये कि जिससे इस पराधीन स्त्री पर्याय तथा जन्म-मरणादि के दु:खों से छुटकारा मिले।

 

तब श्री गुरु बोले-बालिकाओं! सुनो-यह जीव अनादिकाल से मोहभाव को प्राप्त हुए विपरीत आचरण करके ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों को बांधता है और फिर पराधीन हुवा संसार में नाना प्रकार के दु:ख भोगता है। सुख यथार्थ में कहीं बाहर से नहीं आता है, न कोई भिन्न पदार्थ ही हैं, किन्तु वह (सुख) अपने निकट ही आत्मा में, अपने ही आत्मा का स्वभाव है, सो जब तीव्र उदय होता है, उस समय यह जीव अपने उत्तमक्षमादि गुणों को (जो यथार्थ में सुख-शांति स्वरूप ही है) भूलकर इनसे विपरीत क्रोधादि भावों को प्राप्त होता है और इस प्रकार स्व पर की हिंसा करता है। सो कदाचित् यह अपने स्वरूप का विचार करके अपने चित्त को उत्तमक्षमादि गुणों से रंजित करे, तो नि:संदेह इस भव और परभव में सुख भोगकर परमपद (मोक्ष) को प्राप्त कर सकता है। स्त्री पर्याय से छुटना तो कठिन ही क्या है? इसलिए पुत्रियों! तुम मन, वचन, काय से इस उत्तम दशलक्षण रूप धर्म को धारण करके यथाशक्ति व्रत पालो, तो नि:संदेह मनवांछित (उत्तम) फल पाओगी।

 

अब इस दशलक्षण व्रत की विधि कहते हैं-

 

भादों, माघ और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में पंचमी से चतुर्दशी तक १० दिन पर्यंत व्रत किया जाता है। दशों दिन त्रिकाल सामायिक, प्रतिक्रमण, वंदना, पूजन, अभिषेक, स्तवन, स्वाध्याय तथा धर्मचर्चा आदि कर और क्रम से पंचमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय नम:’’ इस मंत्र का १०८ बार एक-एक समय, इस प्रकार दिन में ३२४ बार तीन काल सामायिक के समय जाप्य करे और इस उत्तम क्षमा गुण की प्राप्ति के लिए भावना भावे तथा उसके स्वरूप का बारम्बार चिन्तवन करे। इसी प्रकार-

 

षष्ठी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तममार्दवधर्माङ्गाय नम:’’

सप्तमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमआर्जवधर्माङ्गाय नम:’’

अष्टमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमसत्यधर्माङ्गाय नम:’’

नवमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमशौचधर्माङ्गाय नम:’’

दशमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमसंयमधर्माङ्गाय नम:’’

एकादशी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमतपोधर्माङ्गाय नम:’’

द्वादशी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमत्यागधर्माङ्गाय नम:’’

त्रयोदशी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमआकिंचन्यधर्माङ्गाय नम:’’

चतुर्दशी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय नम:’’

इत्यादि मंत्रों का जाप करके भावना भावे।

 

समस्त दिन स्वाध्याय पूजादि धर्मकार्यों मेें बिताये, रात्रि को जागरण भजन करे, सब प्रकार के राग-द्वेष व क्रोधादि कषाय तथा इन्द्रिय विषयों को बढ़ाने वाली विकथाओं का तथा व्यापारादि समस्त प्रकार के आरंभों का सर्वथा त्याग करे।

दसों दिन यथाशक्ति प्रोषध (उपवास), बेला, तेला आदि करे अथवा ऐसी शक्ति न हो तो एकाशन, ऊनोदर तथा रस त्याग करके करे, परन्तु कामोत्तेजक, सचिक्कण, मिष्ट-गरिष्ठ (भारी) और स्वादिष्ट भोजनों का त्याग करे तथा अपना शरीर स्वच्छ खादी के कपड़ों से ही ढ़के। बढ़िया वस्त्रालंकार न धारण करे और रेशम, ऊन तथा फैंसी परदेशी व मिलों के बने वस्त्र तो छुए भी नहीं, क्योंकि वे अनंत जीवों के घात से बनते हैं और कामादिक विकारों को बढ़ाने वाले होते हैं।

इस कारण यह व्रत दश वर्ष तक पालन करने के पश्चात् उत्साह सहित उद्यापन करे अर्थात् छत्र, चमर आदि मंगल द्रव्य, जपमाला, कलश, वस्त्रादि धर्मोपकरण प्रत्येक दश-दश श्रीमंदिर जी में पधराना चाहिए तथा पूजा, विधानादि महोत्सव करना चाहिए, दुखित, भुखितों को भोजनादि दान देना चाहिए।

 

यह उपदेश व व्रत की विधि सुन उन चारों कन्याओं ने मुनिराज की साक्षीपूर्वक इस व्रत को स्वीकार किया और निज घरों को गई। पश्चात् दश वर्ष तक उन्होंने यथाशक्ति व्रत पालन कर उद्यापन किया सो उत्तमक्षमादि धर्मों का अभ्यास हो जाने से उन चारों कन्याओं का जीवन सुख और शांतिमय हो गया। वे चारों कन्याएं इस प्रकार सर्व स्त्री समाज में मान्य हो गई। पश्चात् वे अपनी आयु पूर्ण कर अंत समय समाधिमरण करके महाशुक्र नामक दशवें स्वर्ग में अमरगिरि, अमरचूल, देवप्रभु और पद्मसारथी नामक महद्र्धिक देव हुए।

 

वहाँ पर अनेक प्रकार के सुख भोगते हुए अकृत्रिम जिनचैत्यालयों की भक्ति-वंदना करते हुए अपनी आयु पूर्ण कर वहाँ से चले, सो जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में मालवा प्रांत के उज्जैन नगर में मूलभद्र राजा के घर लक्ष्मीमती नाम की रानी के गर्भ से पूर्णकुमार, देवकुमार, गुणचन्द्र और पद्मकुमार नाम के रूपवान व गुणवान पुत्र हुए और भले प्रकार बाल्यकाल व्यतीत करके कुमारकाल में सब प्रकार की विद्याओं में निपुण हुए। पश्चात् इन चारों का ब्याह नन्दननगर के राजा इण तथा उनकी पत्नी तिलकसुन्दरी के गर्भ से उत्पन्न कलावती, ब्राह्मी, इन्दुगात्री और वंवू नाम की चार अत्यंत रूपवान तथा गुणवान कन्याओं के साथ हुआ और ये दम्पत्ति प्रेमपूर्वक कालक्षेप करने लगे।

 

एक दिन राजा मूलभद्र ने आकाश में बादलोें को बिखरे देखकर संसार के विनाशीक स्वरूप का चिन्तवन किया और द्वादशानुप्रेक्षा भायी। पश्चात् ज्येष्ठ पुत्र को राज्यभार सौंपकर आप परम दिगम्बर मुनि हो गये। इन चारों पुत्रों ने यथायोग्य प्रजा का पालन व मनुष्योचित भोग भोगकर कोई एक कारण पाकर जिनेश्वरी दीक्षा ली और महान तपश्चरण करके केवलज्ञान को प्राप्त हो, अनेक देशों में विहार करके धर्मोपदेश दिया। फिर शेष अघातिया कर्मों का भी नाशकर आयु के अंत में योग निरोध करके परमपद (मोक्ष) को प्राप्त हो गये।

 

इस प्रकार उक्त चारों कन्याओं ने विधिपूर्वक इस व्रत को धारण करके स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्ग तथा मनुष्यगति के सुख भोगकर मोक्षपद प्राप्त किया। इसी प्रकार जो और भव्य जीव मन, वचन, काय से इस व्रत को पालन करेंगे वे भी उत्तमोत्तम सुखों को प्राप्त होंगे|